फ़िल्म समीक्षा: सत्यप्रेम की कथा
1 min read
मराठी सिनेमा में बढ़िया काम कर चुके निर्देशक समीर विद्वांस ने इस फिल्म को बनाया है। करण श्रीकांत शर्मा ने फिल्म की कहानी, स्क्रीनप्ले और डायलॉग्स लिखे हैं। पिछले साल गर्मियों की छुट्टियों में रिलीज हुई फिल्म ‘भूल भुलैया 2’ से बॉक्स ऑफिस पर धमाल मचा चुकी जोड़ी कार्तिक आर्यन और कियारा आडवाणी एक बार फिर फिल्म ‘सत्यप्रेम की कथा’ में साथ हैं। पहले इस फिल्म का नाम ‘सत्यनारायण की कथा’ रखा गया था, लेकिन इसे लेकर विवाद होने की संभावना के चलते इसे ‘सत्यप्रेम की कथा’ कर दिया गया।
Table of Contents
‘सत्यप्रेम की कथा’ की कहानी

‘सत्यप्रेम की कथा’ की समीक्षा
निर्देशक समीर विद्वांस ने गम्भीर मुद्दे पर एक अच्छी फिल्म बनाई है, लेकिन फिल्म की कहानी कहीं-कहीं धीमी पड़ती है। पटकथा बेहतर हो सकती थी क्योंकि कहानी का मुख्य ट्विस्ट खुलने से पहले ही समझ आ जाता है। डायलॉग्स अच्छे हैं लेकिन कहीं कहीं कुछ गुजराती शब्द समझने में दिक्कत आती है। पहले हाफ में फिल्म ठीक ठाक मनोरंजन करती है और कहानी का प्लॉट भी सेट करती है, लेकिन सेकंड हाफ में यह क्लाइमैक्स तक पहुंचने में उम्मीद से ज्यादा वक्त लेती है। हालांकि, क्लाइमैक्स में फिल्म महिला सशक्तिकरण का जोरदार मेसेज भी देती है कि महिला के ‘ना का मतलब ना’ (नो मीन्स नो) होता है। वहीं जो लोग यह कहते हैं कि नई उम्र के कपल प्यार का मतलब नहीं जानते, ये फिल्म उन्हें बताती है कि नई जेनरेशन के कपल एक-दूसरे की खातिर किसी भी हद तक जाने को तैयार हैं। हालांकि देश के अधिकांश लोग कहानी का ट्विस्ट स्वीकार नहीं कर पायेगें क्योंकि फ़िल्म ने बेहद गम्भीर मुद्दा उठाया है जो पुरुष प्रधान समाज का कड़वा सच है।
अभिनय एवं अन्य तकनीकी पक्ष

फिल्म का नाम भले ही ‘सत्यप्रेम की कथा’ है, सब कुछ सत्यप्रेम की दुनिया में घट रहा है लेकिन कहानी की असली हीरो कथा (कियारा) है। क्लाइमेक्स के एक सीन में ये साफ भी हो जाता है जब सत्तू उसका तारणहार बनने की कोशिश नहीं करता, वो उसकी कहानी का सपोर्टिंग हीरो बनता है। कियारा ने अपने कैरेक्टर को अच्छे से पकड़ा है जो इमोशन वो अपने हावभाव के ज़रिए दिखाती है वो दर्शक समझ पाता है। कियारा उन गिनी चुनी अभिनेत्रियों में से हैं जो सुंदर होने के साथ साथ अच्छा अभिनय भी कर लेती हैं।
गजराव राव हमेशा की तरह बेहतरीन रहे हैं। बेटे बने कार्तिक के साथ उनके कई सीन्स बेहतरीन हैं जो गुजराती बाप बेटे की बेहतरीन केमेस्ट्री के कारण ही सम्भव है। सुप्रिया पाठक के हिस्से में भी 2-3 अच्छे सीन्स आये हैं जहाँ उन्होंने बेहतर काम किया है।
हालांकि फ़िल्म के गाने हिट हो चुके हैं लेकिन मुझे साधारण लगे। सिनेमैटोग्राफ़ी अच्छी है लेकिन एडिटिंग और चुस्त हो सकती थी।
देखें या न देखें
समाज के बेहद गंभीर मुद्दे की बात करने वाली ये पारिवारिक फ़िल्म, मेकर्स की एक अच्छी कोशिश है जिसका विषय एडल्ट होने के बावजूद वल्गर नहीं है! एक बार देखी जा सकती है! रेटिंग- 3/5 ~गोविन्द परिहार (02.07.23)

बहुत अच्छा समीक्षा 👍👍
बहुत बहुत धन्यवाद उमा जी