29/04/2024

फ़िल्म समीक्षा: एनिमल

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आज से करीब 10 साल पहले अनुराग कश्यप की ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ को इंडियन सिनेमा की सबसे हिंसक फिल्म का दर्जा दिया गया था। लेकिन अब ये दर्जा निर्देशक संदीप रेड्डी वांगा की ‘एनिमल’ को देना पड़ेगा। ‘कबीर सिंह’ फेम संदीप रेड्डी वांगा ने ट्रेलर लॉन्च पर ही कह दिया था कि यह अब तक की सबसे वायलेंट फिल्म होगी। वायलेंस के अलावा फिल्म में और भी कई एलिमेंट हैं और वो हैं रणबीर कपूर का करियर बेस्ट परफॉर्मेंस, जो फिल्म के शीर्षक के मुताबिक ‘एनिमल इंस्टिक्ट’ को हर तरह से साकार करता नजर आता है। ऐसा किरदार जो अपने पिता की आन-बान और जान के लिए सिविलाइज्ड सोसायटी के सारे नियम-कानून तोड़ जानवर बन जाता है। यहां यह बताना भी जरूरी है कि यह फिल्म वयस्क (एडल्ट) है और खून खराबा बहुत ज्यादा है इसलिए कमजोर दिलवालों को रास नहीं आएगी।

‘एनिमल’ की कहानी

तकरीबन साढ़े तीन घंटे की कहानी का आरंभ होता है, बूढ़े रणबीर कपूर से जहां से कहानी फ्लैशबैक में जाती है। स्कूल में पढ़ने वाला विजय अपने अरबपति बिजनेसमैन पिता बलबीर सिंह (अनिल कपूर) को न केवल अपना आदर्श मानता है, बल्कि उसे दीवानगी की हद तक चाहता है। अपने पिता के जन्मदिन पर महज उन्हें ‘हैपी बर्थ डे’ बोलने के लिए वह न केवल टीचर की मार खाता है, स्कूल से भागकर घर भी आ जाता है। मगर अपने बिजनेस में दिन-रात मसरूफ रहने वाला बलबीर बेटे को वो प्यार और समय नहीं दे पाता, जिसकी चाहत विजय करता है। स्कूल में पढ़ने वाला विजय एक दिन कॉलेज में पढ़ने वाली अपनी दीदी के साथ रैगिंग करने वालों को सबक सिखाने के लिए मशीनगन चला देता है। तब बलबीर सिंह उसे अनुशासित करने के लिए हॉस्टल भेज देता है। विजय को अहसास होता है कि उसकी गैरमौजूदगी में उसके जीजा ने उसके पिता के बिजनेस एम्पायर कर कब्जा कर लिया है। वह अपने जीजा के साथ भी बदतमीजी करता है और उस वक्त बलबीर सिंह को अहसास होता है कि हॉस्टल से आने के बाद भी विजय में कोई बदलाव नहीं आया है।

खुद को अल्फा मेल कहलाने वाले विजय को गीतांजलि (रश्मिका मंदाना) से पहली नजर का प्यार होता है। तब वह गीतांजलि की मंगनी तुड़वाकर उसके सामने सीधे शादी का प्रस्ताव रख देता है। वह गीतांजलि को अपने पिता और परिवार से मिलवाने लाता है, मगर उसे एक बार फिर पिता की बेरुखी और गुस्से का शिकार होना पड़ता है। वो गीतांजलि को लेकर अमेरिका चला जाता है। आठ साल विदेश में बिताने के बाद एक दिन जब उसे पता चलता है कि उसके पिता को गोली मार दी गई है, तो वह स्वदेश लौटता है। अपने पिता की विरासत को संभालने के लिए कटिबद्ध विजय पिता पर जानलेवा हमला करने वालों के खून का प्यासा हो चुका है, बावजूद इसके कि वह खुद दो बच्चों का बाप बन चुका है। मगर पिता का बदला लेने का जुनून उसे जानवर बनाकर एक ऐसे रक्तरंजित खेल में शामिल कर देता है, जहां धड़ से अलग हुए सिर और खून की होली खेलने वाला तांडव शुरू हो जाता है।

‘एनिमल’ की समीक्षा

निर्देशक संदीप रेड्डी वांगा की दुनिया हम ‘कबीर सिंह’ (2019) में देख चुके हैं। यहाँ भी उसी दुनिया के दर्शन हैं। यहाँ भी मुझे वे सीन और डायलॉग खराब लगे हैं जो कबीर सिंह में भी थे। निर्देशक ने 20-30 साल के युवाओं की नब्ज पकड़ ली है। इन्हीं सीन्स की वजह से फिल्म की रिपिट वैल्यू भी है। निर्देशक फिल्म में वीभत्स, भयानक और रौद्र रसों का अतिरेक करते नजर आए हैं। ये रस फिल्म की शुरुआत से ही कहानी का टोन सेट कर देते हैं हालांकि कहानी आगे बढ़ने के साथ आप इसकी भावनात्मक लेयर तक भी पहुंचते हैं। लेखक-निर्देशक ने रणबीर के किरदार को जो गुण दिए हैं, वो मेरी तरह कई लोगों को हजम नहीं होंगे। किरदार की अल्फा याने मर्दवादी और महिला विरोधी सोच, अपनी नायिका के प्रति वर्चस्व का एकाधिकार, अपने तमाम काले कारनामों का जस्टिफिकेशन और नायक होने के बावजूद उसका इस हद तक जानवर हो जाना, समाज के लिए घातक हो सकता है। इसके बावजूद इस चरित्र से आप नफरत नहीं कर पाते क्योंकि फिल्म मेकिंग इतनी शानदार है कि उसने सब ढक दिया है। फिल्म देखते समय मैं सोच रहा था कि रश्मिका ने ये पढ़ी लिखी लेकिन असहाय सी लड़की से बेबस पत्नी का ये रोल क्या सोच कर किया था लेकिन एंटरवल के बाद एक सीन में उसने अपनी एक्टिंग से अपने रोल को काफी हद तक जस्टीफ़ाई किया है। हालांकि उसका ड्रेस सेंस मुझे फिल्म के हिसाब से अजीब लगा। बाप-बेटे के सीन्स कम हैं लेकिन जितने भी हैं दमदार हैं क्योंकि यही एक वजह थी मेरी इस फिल्म को देखने की। अनिल कपूर ने बाप के रोल में कमाल किया है। जबरदस्त ट्रैलर का पहला सीन साढ़े 3 घंटे की फिल्म का क्लाइमैक्स सीन होगा, सोचा नहीं था।

एनिमल की खास बातें

  • रणबीर कपूर का अभिनय
  • एंटरवल से पहले के 15 मिनट (अर्जन वैली के म्यूजिक पर कुल्हाड़ी वाला एक्शन और मेड इन इंडिया वाली मशीन गन)
  • शानदार फिल्म मेकिंग
  • गूंगे किलर के रूप में बॉबी देओल
  • क्लाइमैक्स में बाप-बेटे के बीच का दृश्य

एनिमल की कमियां

  • एंटरवल के बाद धीमी पटकथा (कई सीन बेवजह लगे)
  • रश्मिका की डायलॉग डिलीवरी (आसानी से समझ नहीं आती)
  • रणबीर को अपने पापा से इतना प्रेम क्यों? (कोई कारण नहीं)

अभिनय

रणबीर कपूर ने फिल्म में रणविजय सिंह नाम का किरदार निभाया है। ये फिल्म पूरी तरह से उन्हीं के कंधों पर धरी हुई है क्योंकि किसी और एक्टर को उनके सामने पनपने का मौका नहीं दिया गया है। रणबीर ने धुआं उड़ा दिया है। ये संभवत: ‘बर्फी’ और रॉकस्टार के बाद उनके करियर का सबसे अच्छा अभिनय है। उनकी आंखें इस किरदार के भीतर घुसने में मदद करती हैं। वो किन भावों से गुज़र रहा है, वो आपको वहीं नज़र आता है। बेसिकली आप इस रोल में किसी और एक्टर को इमैजिन ही नहीं कर सकते। इसमें ज़ाहिर तौर पर लेखन और डायरेक्टर की भूमिका अहम होती है, मगर आप इस वजह से एक्टर का क्रेडिट नहीं छीन सकते। मार-काट के दृश्यों में जहां उनकी वहशत झलकती है, वहीं रोमांटिक दृश्यों में वे इरॉटिक अंदाज में दिखते हैं, मगर सबसे ज्यादा प्रभावित करने वाले दृश्य उनके बाप-बेटे के बीच के हैं। क्लाइमैक्स में बाप-बेटे के बीच का दृश्य आपको कराहियत दे जाता है। अपने अभिनय की विशिष्ट शैली से वे दर्शकों को स्तब्ध करते जाते हैं। इस नायक प्रधान फिल्म में रश्मिका अपने आक्रामक तेवरों से अपनी उपस्थिति दर्ज कराती हैं। रणबीर को थप्पड़ मारने वाला दृश्य हो या फिर रणबीर के धोखा दिए जाने के बाद वाला सीन, वे अपनी अभिनय प्रतिभा का लोहा मनवाती हैं। गूंगे किलर के रूप में बॉबी देओल भी कम खूंखार नहीं लगे हैं। उनका किरदार कहानी का टर्निंग पॉइंट साबित होता है, मगर उन्हें फिल्म में काफी कम स्क्रीन टाइम मिला है।
अनिल कपूर ने पिता की भूमिका को परतदार बनाया है। साइको बेटे की करतूतों पर उनके चेहरे पर असमंजस और बेबसी के भाव उनके अभिनय के सालों के अनुभव को साबित करते हैं। एक अरसे बाद शक्ति कपूर को पॉजिटिव भूमिका में देखना सुखद लगता है। सुरेश ओबेरॉय और प्रेम चोपड़ा ने अपनी भूमिकाओं में अच्छा साथ निभाया है। उपेंद्र लिमये का किरदार इंटेंस सीन में ह्यूमर लाने का काम करता है। रणविजय की मां बनीं चारू शंकर, बलबीर के दामाद बने सिद्धार्थ कार्णिक, आबिद हक के रोल में सौरभ सचदेवा और रणविजय की बहनों के चरित्रों में सलोनी बत्रा और अंशुल चौहान ने भी भूमिकाओं के साथ न्याय किया है। तृप्ति डिमरी को अगले कुछ सालों में इस दौर की सबसे अच्छी एक्टर्स में गिना जाएगा। इसकी शुरुआत ‘लैला मजनू’ और ‘बुलबुल’ से हो चुकी है। ‘एनिमल’ में उनका रोल कुछ खास नहीं है, बावजूद इसके उनका काम बहुत प्रभावी है।

निर्देशन एवं अन्य तकनीक पक्ष

बतौर निर्देशक संदीप रेड्डी वंगा की ये तीसरी और हिंदी में बस दूसरी फिल्म है। सिर्फ तीन फिल्मों से अपना एक अलग किस्म का सिनेमा रच देने वाले संदीप को इस फिल्म में हिंसा के अतिरेक के चलते आलोचनाओं का सामना भी करना पड़ेगा। लेकिन, यहां ये ध्यान रखने वाली बात है कि ये फिल्म सिर्फ वयस्कों के लिए बनी है। कहानी, पटकथा और निर्देशन के अलावा संदीप ने फिल्म की एडिटिंग (संपादन) की भी जिम्मेदारी संभाली है और इस चौथे विभाग में उनका जो कौशल है वही तीन घंटे से अधिक की इस फिल्म को बांधे रखता है। सिनेमा नवरसों की एक कला है और इसमें वीर, रौद्र, वीभत्स और भयानक रस भी कलात्मक तरीके से परदे पर आते रहने ही चाहिए। अभिनय की इन कलाओं को संदीप ने पूरी फिल्म में बहुत संजीदगी से साधा है।  एक्शन दृश्यों में अमित रॉय की सिनेमैटोग्राफी दमदार है। हर्षवर्धन रामेश्वर के बैकग्राउंड म्यूजिक की तारीफ करनी होगी, जो फिल्म की भयावहता को बनाए रखता है। संगीत की बात करें, तो ‘सतरंगा’, ‘पापा मेरी जान’, ‘सारी दुनिया जला देंगे’ जैसे गाने सिचुएशन के मुताबिक अच्छे बन पड़े हैं।

देखें या न देखें

यदि आप मार-काट वाली फिल्मों के शौकीन हैं या रणबीर कपूर के फैन हैं तो ये फिल्म अवश्य देखें लेकिन यदि आप सार्थक सिनेमा देखना चाहते हैं तो अपना समय और पैसा दोनों बचाएं। रेटिंग– 3.5*/5  ~गोविन्द परिहार (05.12.23)

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